बगीचों के कौतूहल कब सूखे पत्तों के जंगल हो गए
हम भी जाने कैसे कब भईया से फिर अंकल हो गए
लिबास जो हुआ करती थी कभी बस जीन्स और टी शर्ट
जाने कब कंधों पे टिके कॉलर फिर कम्बल हो गए
कुछ दिन गुज़र गए, कुछ गुज़र रहे, कुछ गुज़रने वाले हैं
बदलते वक्त में कैसे शक्ल पर झुर्रियों के दंगल हो गए
सनीचर और इतवार की शोखियाँ भी तेवर बदलती रहीं
सब दिन एक ही तरह जैसे के सोम, बुद्ध, मंगल हो गए
मोहम्मद नईम