Wednesday 25 October 2017

अंकल हो गए

बगीचों के कौतूहल कब सूखे पत्तों के जंगल  हो गए
हम भी जाने कैसे कब भईया से फिर अंकल हो गए

लिबास जो हुआ करती थी कभी बस जीन्स और टी शर्ट
जाने कब कंधों पे टिके कॉलर फिर कम्बल हो गए

कुछ दिन गुज़र गए, कुछ गुज़र रहे,  कुछ गुज़रने वाले हैं
बदलते वक्त में कैसे शक्ल पर झुर्रियों के दंगल हो गए

सनीचर और इतवार की शोखियाँ भी तेवर बदलती रहीं
सब दिन एक ही तरह जैसे के सोम, बुद्ध, मंगल हो गए

मोहम्मद नईम